Theme- Nagpur, 2026
“लोकतन्त्र में युवा : कर्तव्यों के
परिप्रेक्ष्य में अधिकार”
युवा प्रत्येक समाज का वह प्रमुख तत्व है जो
भविष्य है, कर्णधार भी। उसकी अपनी जिम्मेदारी का
अहसास उसे होता है, भले ही वह वैज्ञानिक, चिकित्सक, प्रशासन-सामाजिक-राजनैतिक या की लोकसम्पर्क-मीडिया क्षेत्र में जाए की
अध्यात्म।
वैश्विक परिदृश्य में भी लोकतान्त्रिक मूल्यों को
सुदृढ़ करने में महती भूमिका युवाओं की रहीं है, जिसको इतिहास-संस्कृति-साहित्य किसी ने भी नहीं नकारा। भारतीय समाज
में अधिकार और कर्तव्य पारस्परिक साक्षेप रहें है, परस्पर अन्योन्याश्रित। इसमें
कोई स्पष्ट भेद होता नहीं है, जबकि इन
दोनों को साथ देखा जाए तो, पर जब
दोनों को अलग-अलग बताया-दिखाया जाए तो अंतरद्वन्द्व पैदा होता है, वही से समाज में में उद्वेलना का प्रादुर्भाव
होता है, आपसी सद्भाव की कमी, अनपेक्षित ईर्ष्या, कोई भी सकारात्मक कार्य को रोकने की कवायदें चलने लगती है।
समय के साथ और कुछ हद तक तकनीकी विकास के
मद्देनज़र, प्रकृति-पर्यावरण भी बदल रहा है।
सत्य-असत्य अब वैज्ञानिक अधिक हो रहें है, सोशियल
मीडिया है तो वह सामाजिक सम्बन्धों का ताना-बाना
अब उतने चटकीले रंगों सा नहीं रहा है, ऐसी
हल्की सी प्रतीति में, पुनश्च कर्तव्यों को तरहीज देने की
जरुरत आन पड़ती है।
अधिकार और सत्य का सायुज्य बना रहें, लोकतांत्रिक प्रभुसत्ता जनमत में निहित रहें,
इसकी इतिश्री केवल पांचसालाना योजना की सदृश मत
तक सीमित ही नहीं हो। मतदान हमारा अधिकार है, कर्तव्य भी। लोकतान्त्रिक समाज में हर एक नागरिक के समक्ष जब अपने कुछ
यक्ष प्रश्न सामने होते है तो उसे उस स्थिति में कर्तव्यों की और उन्मुख होना ही,
तात्कालिक समाज की विश्वसनीयता को दर्शाता है,
राज्य को मजबूती देता है।
हर एक वह स्थिति जिसमें हमारा अस्तित्व नज़र आये,
यह भान युवाओं को होना चाहिए। सबको जानना,
जागरूक होना, पहले मानवता, देश,
समाज और तब वैयक्तिकता यही तो कर्तव्यों के बीच
अधिकारों का सनातन है, जो सत्यं शिवं सुन्दरं रूप में हमारे
राष्ट्रीय स्तम्भ पर उत्कीर्ण है।
हमारा कोई भी कार्य व्यवस्था को, उसके ढांचे को, समरसता को क्या, कितना
प्रभावित करेगा? उससे कोई अन्य परिणाम तो नहीं आने
वाला? वह तात्कालिक समय, आने वाले कल के लिए अभिशाप तो नहीं होगा? मेरी भूमिका? यह सब दूरदर्शिता से सोचने के लिए उचित मार्गदर्शन जरुरी है, जरुरी है की हम अपने दायरे को संकुचित करने की
बजाय उसको विस्तीर्ण करें, जिसमें
उदारता हो, सद्भाव को, बड़प्पन हो, सहानुभूति हो और साथ में
लोकतान्त्रिक मिज़ाज़ भी।
सोऽहं भाव होगा तो आपका वक्तव्य, आपका कृतित्व और कर्तव्य सब समान होगा। यथार्थ और
आदर्श में अन्तर नहीं होगा, तबका
समाज अधिक लोकोपकारी और लोकतन्त्र होगा।